औरत के दैहिक अधिकार को लेकर फैसला

औरत के दैहिक अधिकार को लेकर  फैसला

अजय दीक्षित
केरल उच्च न्यायालय ने इधर औरत के दैहिक अधिकार को लेकर जो महत्त्वपूर्ण फैसला दिया है, उसकी न केवल भरपूर सराहना की जानी चाहिये, बल्कि औरत की अग्रगामिता के हक उसका स्वागत भी किया जाना चाहिये। केरल की महिला अधिकार कार्यकर्ता रेहाना फातिमा ने कुछ वर्ष पूर्व अपने शरीर के ऊपरी भाग पर अपने दो अवयस्क बच्चों की पेंटिंग कराई थी और इसके वीडियो को सोशल मीडिया पर पोस्ट कर दिया था। इस पर पुरुषवादी पुरातनपंथियों ने जमकर हो-हल्ला मचाया था। फातिमा के इस कृत्य को अश्लील और वाल अधिकारों का हनन बताकर उनके विरुद्ध पोक्सो एक्ट तथा सूचना प्रौद्योगिकी कानूनों के अन्तर्गत दण्डात्मक कार्रवाई की गई।

फातिमा ने इसे उच्च न्यायालय में चुनौती दी और अंतत: उन्हें सभी आरोपों से वरी कर दिया गया। फैसला सुनाते हुये न्यायाधीश ने फातिमा के इस तर्क को पूरी तरह स्वीकार किया कि उनकी देह उनकी है, जिस पर उनका पूरा अधिकार है। उनके अर्धनग्न प्रदर्शन को पुरुष- स्थापित नैतिकता के मानदण्डों के अनुसार न तो अश्लील माना जाना चाहिये और न ही यौन उत्तेजक । न्यायाधीश ने अपने फैसले में जिन बातों को स्थापित किया वे कई दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण हैं। कहा गया कि औरत के ऊपरी हिस्सों का नग्न प्रदर्शन सिर्फ इसलिए कि वह औरत का है, अश्लील, अशोभनीय और यौनिक नहीं माना जा सकता।

समाज की नैतिकता और कानून हमेशा एक रूप नहीं होते । समलैंगिक विवाह, लिव इन रिश्ते समाज की दृष्टि से अनैतिक हो सकते हैं, लेकिन कानून की दृष्टि से ये अपराध नहीं हैं। इसलिए दण्डनीय भी नहीं हैं। समाज की नैतिकता और कुछ लोगों की भावनाएं किसी व्यक्ति के कृत्य को अपराध नहीं बना सकतीं। इस मामले में नैतिकता के दोहरे मापदण्ड नहीं अपनाए जा सकते। अगर औरत का अंग प्रदर्शन अश्लील है, तो पुरुषों के इसी तरह के प्रदर्शन को भी अश्लील माना जाना चाहिए अन्यथा एक औरत को भी यह अधिकार होना चाहिए कि वह स्वेच्छा से अपनी देह का प्रदर्शन कर सके । रेहाना फातिमा ने कहा कि शरीर पर पेंटिंग का उसका यह कार्य वस्तुत: औरत की देह को लेकर स्थापित पुरुषवादी रूढ़ मान्यताओं को चुनौती देने और उनसे मुक्ति का एक प्रयास था जिसे अदालत ने यथावत स्वीकार किया है। वस्तुत: यह फैसला औरत के हक की लड़ाई में जीत का एक पड़ाव माना जाना चाहिये ।

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