असम में रूरल सोलर स्कीम की धुंधली रोशनी

असम में रूरल सोलर स्कीम की धुंधली रोशनी

ख़राब उपकरण और जवाबदेही की कमी की वजह से असम में रिन्यूबल एनर्जी स्कीम्स को लेकर बंधी उम्मीदें कमजोर पड़ती जा रही हैं। सबसे बड़ा झटका उन लोगों के लिए है जो जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के प्रति बेहद नाजुक स्थिति में हैं।

आत्रेयी धर, चंद्रिनी सिन्हा

दो गर्मियां बीत चुकी हैं लेकिन तसलीमा* की क्लास में लगा पंखा नहीं चल रहा है। असम तसलीमा का गृह राज्य है, जो लगातार गर्म होता जा रहा है। फिर भी, राजधानी गुवाहाटी से 280 किमी दूर चलकुरा चार पर स्थित इंदादिया इस्लामिया मदरसा में पढ़ने वाले बच्चों को गर्मी से कोई राहत नहीं मिल पा रही है। दरअसल, यहां बिजली है ही नहीं।

 ये हालात, इसके बावजूद हैं कि ग्रामीण विद्युतीकरण योजना, दीन दयाल उपाध्याय ग्राम ज्योति योजना (डीडीयूजीजेवाई) के तहत 2018 में मदरसे में सोलर पैनल स्थापित किए गए थे। डीडीयूजीजेवाई 100 फीसदी विद्युतीकरण के लिए एक दशक से अधिक समय से चल रही एक योजना है।

 ग्रामीण विद्युतीकरण को लेकर एक प्रमुख चुनौती ऑफ-ग्रिड क्षेत्रों की रही है। लेकिन सस्ती सोलर होम किट उपलब्ध होने के बाद यह चुनौती काफी हद तक आसान हो गई। यह असम जैसे राज्य के लिए विशेष रूप से महत्वपूर्ण रही, जिसका एक तिहाई क्षेत्र बाढ़ के खतरे वाला है। यह भारतीय हिमालयी क्षेत्र के उन 12 राज्यों में है जिनको जलवायु प्रभावों के लिहाज से सबसे ज्यादा नाजुक माना जाता है।

 डीडीयूजीजेवाई ने 2016 और 2021 के बीच, पैनल, कंट्रोलर और लेड एसिड या जैल पर चलने वाली बैटरी से युक्त सोलर एनर्जी किट पर सब्सिडी दी। इस योजना का मौजूदा चरण 2022 से 2027 तक है। इसके तहत लाभार्थियों को लिथियम-आयन बैटरी प्राप्त होती है।

 इंदादिया इस्लामिया मदरसा में, 2021 में, सोलर पैनलों ने काम करना बंद कर दिया। ये सोलर पैनल केवल तीन साल चले। मदरसा के वाइस प्रेसिडेंट महीबुल इस्लाम अहमद ने स्थानीय पंचायत (निर्वाचित ग्राम परिषद) को सूचित किया। इसके बाद कॉन्ट्रैक्टर के सामने इस मुद्दे को उठाया गया, लेकिन कोई भी उपकरण को चेक करने भी नहीं आया।

 डीडीयूजीजेवाई योजना की टेंडर की शर्तों के तहत, पांच साल तक उपकरणों के मेंटेनेंस की जिम्मेदारी वेंडर की होती है। यहां की शिकायतों को कॉन्ट्रैक्टर्स, वेंडर्स और इस काम का ठेका देने वाली राज्य सरकार द्वारा संचालित, असम पावर डिस्ट्रीब्यूशन कंपनी लिमिटेड (एपीडीसीएल) को भेज दिया गया, लेकिन ग्रामीणों को इस पर कोई जवाब नहीं आया।

 तीन साल से मदरसा बिना बिजली के चल रहा है।

महीबुल इस्लाम अहमद

अहमद कहते हैं कि बात जब बिजली की आती है, तो स्टूडेंट्स को काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ता है। चार में रहने वाले ज्यादातर बच्चे, बेहद गरीब परिवारों से हैं। इसलिए वे अपने बच्चों को चार से बाहर वाले स्कूलों में नहीं भेज सकते। जब सोलर पैनल लगे तो उसका फायदा स्टूडेंट्स को मिला। लेकिन तीन साल से मदरसा, बिना बिजली के चल रहा है। कोई निरीक्षण या सर्वे करने भी नहीं आया। हम अभी भी इंतजार कर रहे हैं कि कुछ हो जाएगा।

 मदरसे में 300 से ज्यादा स्टूडेंट्स हैं। इनमें लड़के और लड़कियां दोनों हैं। ये सब बिना पंखे, बिना रोशनी के पढ़ते हैं। मदरसे में हॉस्टल भी है। यहां 150 से अधिक स्टूडेंट्स बिना बिजली के रहते हैं।

 तसलीमा कहती हैं, “चार में गर्मियों का मौसम बहुत भीषण होता है। हम अपनी क्लास में बहुत जल्दी थका हुआ महसूस करने लगते हैं। मेरे ज्यादातर दोस्त, भीषण गर्मी में बीमार भी पड़ जाते हैं।”

सिद्धांत में आदर्श योजना, हकीकत में अधूरी

अक्टूबर 2022 में, द् थर्ड पोल ने, असम के ग्रामीण क्षेत्रों में डिसेंट्रलाइज्ड रिन्यूबल एनर्जी सोलर एनर्जी स्कीम्स की कवरेज की जानकारी के लिए एपीडीसीएल में आरटीआई लगाई। प्राप्त जानकारी से पता चला कि कागजों पर तो, डीडीयूजीजेवाई योजना ने असम के 31 जिलों में, लगभग सभी गांवों में 100 फीसदी कवरेज हासिल कर लिया है। लेकिन जब द् थर्ड पोल ने असम के धुबरी और कामरूप ग्रामीण जिलों के चार और गांवों का दौरा किया, तो हकीकत बहुत अलग थी।

 असम के चार कामरूप ग्रामीण जिले में मगुआ बिलार पाथर के एक किसान, अजहर अली को 2022 की शुरुआत में, डीडीयूजीजेवाई योजना के तहत, सरकार से एक सोलर पैनल, कंट्रोलर और बैटरी यूनिट प्राप्त हुई। तीन महीने बाद ही, कंट्रोलर बॉक्स में दरारें आ गईं और सिस्टम ने काम करना बंद कर दिया।

कंट्रोलर बॉक्स टूट जाने के कारण, अली ने पंखे चलाने और बल्बों को जलाने के लिए अपने सोलर पैनल को सीधे लिथियम बैटरी से जोड़ दिया। उनका चार, ग्रिड से दूर है। ऐसे में, यही उनके लिए बिजली का एकमात्र स्रोत है। डायरेक्ट कनेक्शन का मतलब यह हुआ कि बैटरी रात में उपयोग के लिए ऊर्जा का भंडारण नहीं कर सकती। तकनीशियन और विशेषज्ञ भी सोलर पैनल को डायरेक्ट बैटरी से जोड़ने की सलाह नहीं देते क्योंकि यह बैटरी को ओवरचार्ज कर सकता है और उसे नुकसान पहुंचा सकता है।

 डीडीयूजीजेवाई के टेंडर में कहा गया है कि बैटरी खराब होने की स्थिति में, इसे इंस्टाल करने के पांच साल के भीतर मुफ्त में बदला जा सकता है। लेकिन जिन घरों में द् थर्ड पोल ने दौरा किया- जैसे, कामरूप ग्रामीण जिले में नोवापारा कथालगुड़ी और मगुआ बिलार पाथर चार पर, साथ ही, धुबरी जिले में चलाकुरा चार में – वहां किसी भी खराब हो चुकी बैटरी को नहीं बदला गया था। इसके बजाय, योजना के लाभार्थी परिवारों ने बैटरी ठीक कराने या नई बैटरी खरीदने के लिए अपना पैसा खर्च किया।

 मगुआ बिलार पाथर चार के एक अन्य निवासी अब्दुल कलाम ने द् थर्ड पोल को बताया कि जून 2022 में उन्हें अली के जैसी ही एक किट मिली थी, जिसकी क्षमता 320 वोल्ट थी। यह कम से कम पांच बल्बों के लिए पर्याप्त थी। लेकिन किट में केवल दो बल्बों के लिए पर्याप्त वायरिंग थी। कलाम को अतिरिक्त वायरिंग खरीदने के लिए खुद से 225 रुपये खर्च करने पड़े। उनकी मासिक आय तकरीबन 4000 रुपये है। ऐसे में, ये 225 रुपये का यह खर्च, उनके ऊपर एक बोझ जैसा ही रहा।

 इस स्टोरी के लिए रिपोर्टिंग के दौरान जिन विशेषज्ञों से हमने बात की, उन्होंने बताया कि बिडिंग डाक्यूमेंट्स में स्पष्ट तौर पर इस बात का जिक्र रहता है कि पर्याप्त वायरिंग उपलब्ध कराने की जिम्मेदारी वेंडर्स की होगी।

 मगुआ बिलार पाथर चार के निवासी अब्दुल कलाम को डीडीयूजीजेवाई योजना के तहत मिली सोलर किट में केवल दो बल्ब के लिए ही पर्याप्त वायरिंग थी। बाकी की वायरिंग के लिए उनको खुद पैसे खर्च करने पड़े, जबकि इस योजना के डाक्यूमेंट्स में लिखा हुआ है कि लाभार्थियों को पर्याप्त वायरिंग मिलनी चाहिए। (फोटो: चंद्रानी सिंहा)

द् थर्ड पोल ने जिन वेंडरों से संपर्क किया और उनसे बातचीत का अनुरोध किया उन्होंने इसका कोई जवाब नहीं दिया।

 असम के कार्बी आंगलोंग जिले के एक सब-कॉन्ट्रैक्टर, जो अपना नाम नहीं बताना चाहते थे, ने कहा: “सोलर पैनलों में जब कोई उपकरण काम नहीं करता है तो हमें बहुत सारी शिकायतें मिलती हैं, लेकिन अगर हमें मुख्य वेंडर से ही पैसा नहीं मिलेगा तो हम अपनी जेब से खर्च करके मरम्मत नहीं कर सकते।”

 इसके अलावा, चार पर रहने वाले कुछ लोगों को सोलर किट मिली ही नहीं थी। दरअसल, चार पर रहने वालों को अक्सर पलायन के लिए मजबूर होना पड़ता है। नई जगह जाने पर, उनके लिए वहां निवास के प्रमाण के तौर पर दस्तावेज, मसलन वोटर कार्ड इत्यादि, हासिल करना काफी मुश्किल होता है। और सब्सिडी वाला सोलर किट प्राप्त करने के लिए इन दस्तावेजों की जरूरत होती है।

 काग़ज़ी दावे बनाम ज़मीनी हक़ीक़त

साल 2011 में हुई पिछली जनगणना में पाया गया कि असम में 37 फीसदी घरों में बिजली की उपलब्धता थी। जबकि राष्ट्रीय स्तर पर यह आंकड़ा 62 फीसदी का था।

 राज्य ने 2015 में 96.8 फीसदी की चौंकाने वाली घरेलू विद्युतीकरण दर हासिल करने का दावा किया। और 2022 तक 100 फीसदी विद्युतीकरण हासिल करने का लक्ष्य रख दिया।

द् थर्ड पोल की ओर से लगाई गई आरटीआई से पता चलता है कि डीडीयूजीजेवाई सोलर योजना के लिए पात्र सभी घरों में सोलर पैनल स्थापित हैं। आरटीआई के जवाब में कहा गया है कि नोवापारा कथालगुड़ी और मगुआ बिलार पाथर के गांवों में प्रत्येक पात्र घर को (क्रमशः 187 और 196 परिवार) योजना द्वारा पूरी तरह से कवर किया गया है।

 केंद्र और राज्य दोनों जगह सत्ता में काबिज भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) से जुड़े एक स्थानीय नेता अकरम हुसैन ने द् थर्ड पोल को बताया: “गांवों में बहुत सारे खराब सोलर पैनल देखे गए हैं। तीन महीने बाद इनका कोई उपयोग नहीं रहता। ग्रामीणों को या तो इसकी मरम्मत के लिए खुद पैसे देने पड़ते हैं या इसके मरम्मत का इंतजार करना पड़ता है, जिसमें काफी समय भी लगता है।” उनका अनुमान है कि नोवापारा कथालगुड़ी और मगुआ बिलार पाथर में लगे कम से कम आधे सोलर किट कुछ ही समय में खराब हो गए।

 लिथियम बैटरियों के खराब होने के संभावित कारणों में बैटरी के आकार से अधिक डिवाइस लोड या गलत तरीके से हुई वायरिंग तक हो सकते हैं।

 एक एनजीओ वर्ल्ड रिसोर्सेस इंस्टीट्यूट (डब्ल्यूआरआई) की एक सीनियर प्रोग्राम मैनेजर, हर्षा मीनावत ने बताया, “अगर हम एलईडी या जैल बैटरियों से तुलना करें तो

आमतौर पर, लिथियम बैटरियों को कम रखरखाव की आवश्यकता होती है।”

द् थर्ड पोल की आरटीआई इन्क्वायरी से पता चला कि वेंडर – मदनानी इंजीनियरिंग वर्क्स – ने एक यूनिट के लिए 45,000 रुपये खर्च किए। लेकिन अकरम हुसैन को यकीन ही नहीं होता कि वेंडर ने वास्तव में इतना खर्च किया होगा। उनका कहना था कि उपकरण काफी सस्ते लग रहे थे। सोलर पैनलों को छोड़कर, अन्य बाकी उपकरण अच्छी गुणवत्ता वाले नहीं लग रहे थे।

मदनानी इंजीनियरिंग वर्क्स से भी हमने बातचीत की कोशिश की लेकिन उनकी तरफ से कोई जवाब नहीं आया।

 मीनावत का कहना है, “डीडीयूजीजेवाई जैसी योजनाओं के तहत, घरेलू स्तर पर बांटे जाने इन उपकरणों का ऑडिट मुश्किल से ही होता है। और अगर कभी ऑडिट हुआ भी, तो परफॉर्मेंस की गणना नहीं होती। केवल वित्तीय ऑडिट तक इसे सीमित रखा जाता है। अगर परफॉर्मेंस को लेकर भी ध्यान दिया जाता तो इस तरह की योजनाओं के तहत वितरित किए गए उपकरणों की कामयाबी या नाकामयाबी के मामलों को लेकर हमारे पास संख्या होती।”

 इस स्टोरी के लिए संपर्क किए जाने पर, असम सरकार में बिजली मंत्री नंदिता गोरलोसा ने इस बात पर सहमति व्यक्त की कि उपकरणों की गुणवत्ता और रखरखाव में कुछ कमियां हैं। साथ ही, उन्होंने यह भी माना कि डीडीयूजीजेवाई को ठीक ढंग से लागू करने के मामले में भी जमीनी स्तर पर कुछ समस्याएं हैं। उनका कहना था कि यह एक महत्वपूर्ण मुद्दा है। उन्होंने यह भी कहा कि वह इस मुद्दे पर अपने प्रमुख सचिव से बात करेंगी और मामले पर एक रिपोर्ट पेश करेंगी।

 आगे का रास्ता

इस स्टोरी के लिए अनेक विशेषज्ञों से बातचीत की गई और उन्होंने सुझाव दिया कि अगर टेंडर की प्रक्रियाओं में जरूरी बदलाव कर दिए जाएं तो सरकार की तरफ से चलाई जा रही ये घरेलू सौर योजनाएं बेहतर ढंग से लागू हो सकती हैं।

 डब्ल्यूआरआई के हर्षा मीनावत ने तर्क दिया कि टेंडर की प्रक्रिया ‘गुणवत्ता लागत आधारित प्रणाली’ पर होनी चाहिए। यह वेंडर्स के चयन के लिए, विश्व स्तर पर एक अच्छी तरह से स्वीकृत पद्धति है। यह लागत को देखने से पहले, तकनीकी और गुणवत्ता स्कोर के आधार पर बोली लगाने वालों का मूल्यांकन करती है। लेकिन भारत भर में, अधिकांश टेंडर प्रक्रियाओं में, वेंडर्स को सबसे कम लागत के आधार पर चुना जाता है। डीडीयूजीजेवाई भी इस मॉडल का अनुसरण करता है। इसका परिणाम निम्न गुणवत्ता का होना है।

 मीनावत ने यह भी कहा कि साइट सर्वेक्षण और ऊर्जा मांग आकलन के आधार पर वेंडर्स की जिम्मेदारियों को परिभाषित करने की आवश्यकता है। यह स्पष्ट रूप से रेखांकित किया जाना चाहिए कि वेंडर्स द्वारा क्या-क्या किया जाना चाहिए और उनकी जवाबदेही किसी अन्य के लिए बिल्कुल नहीं छोड़ा जाना चाहिए। इसके अलावा, अगर कोई वेंडर अपने काम की सब-टेंडरिंग करता है, तो किसी भी गड़बड़ी की स्थिति में संबंधित वेंडर को जवाबदेह ठहराया जाना सबसे महत्वपूर्ण है।

 डब्ल्यूआरआई इंडिया में क्लाइमेट प्रोग्राम की डायरेक्टर उल्का केलकर ने स्थानीय लोगों को रखरखाव की जिम्मेदारी देने की आवश्यकता की बात रखी। मौजूदा टेंडरिंग में ऐसा कुछ नहीं है। उनका कहना है कि टेंडर्स में यह क्लॉज होना चाहिए कि इन उपकरणों का रखरखाव कैसे किया जाना चाहिए, इसको लेकर स्थानीय लोगों की जरूरी बातें सिखाई जाएंगी। इससे उनके लिए नौकरियों के अवसर भी पैदा होंगे। केलकर ने कहा कि उपकरणों में किसी तरह की दिक्कत आने की स्थिति में कोई व्यक्ति बाहर से आए और उसको ठीक करे, ऐसा इंतजार- विशेषकर दूर-दराज वाले इलाकों में- निश्चित रूप से पीड़ादायक है।

साभारः दथर्डपोलडॉटनेट

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