अदालती फैसलों का अच्छा दिन

अदालती फैसलों का अच्छा दिन

अजीत द्विवेदी
मई का दिन ऐतिहासिक अदालती फैसलों का दिन रहा। देश की सर्वोच्च अदालत ने संविधान की भावना का मान रखने वाले दो अहम फैसले दिए। दिल्ली सरकार और उप राज्यपाल के बीच अधिकारों को लेकर चल रहे विवाद में सुप्रीम कोर्ट ने राज्य सरकार के अधिकारों को महत्वपूर्ण माना और बेहद अहम टिप्पणी की। अदालत ने कहा कि ‘यह सुनिश्चित करना होगा कि राज्य का शासन केंद्र के हाथ में न चला जाए’। यह बेहद महत्वपूर्ण टिप्पणी है, जो संविधान से बनाई गई संघीय व्यवस्था को मजबूत करने वाली है। पांच जजों की संविधान पीठ का दो टूक फैसला है कि उप राज्यपाल को चुनी हुई सरकार की सलाह पर काम करना होगा। दूसरा फैसला महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे सरकार के गिरने और शिव सेना के विधायकों की बगावत से जुड़ा था। उस मामले में भले सुप्रीम कोर्ट ने भाजपा के समर्थन से सरकार चला रहे एकनाथ शिंदे और 15 अन्य विधायकों को अयोग्य नहीं ठहराया है और उद्धव ठाकरे सरकार को बहाल करने से इनकार कर दिया है। लेकिन राज्यपाल और स्पीकर दोनों के कामकाज को लेकर बेहद गंभीर टिप्पणी की है।

पहले दिल्ली सरकार से जुड़े फैसले की बात करते हैं। राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली की चुनी हुई सरकार और केंद्र सरकार की ओर से नियुक्त उप राज्यपाल के बीच अधिकारों को लेकर चल रही खींचतान के मामले में सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने जो फैसला सुनाया और जो टिप्पणियां की हैं वह आगे की राजनीति और लोकतांत्रिक व्यवस्था दोनों के लिए बहुत अहम हैं। पांच जजों की संविधान बेंच का फैसला खुद चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ ने पढ़ा। उनकी दो टिप्पणियां गौरतलब हैं। पहली, केंद्र और राज्य दोनों के पास कानून बनाने का अधिकार है, लेकिन इस बात का ध्यान रखा जाए कि केंद्र का इतना ज्यादा दखल न हो कि वह राज्य सरकार का काम अपने हाथ में ले ले। इससे संघीय ढांचा प्रभावित होगा। दूसरी, अगर किसी अफसर को ऐसा लगता है कि उन पर सरकार नियंत्रण नहीं कर सकती है, तो उनकी जिम्मेदारी घटेगी और कामकाज पर इसका असर पड़ेगा। उप राज्यपाल को दिल्ली सरकार की सलाह पर ही काम करना होगा।

इन दोनों टिप्पणियों को सिर्फ दिल्ली के संदर्भ में देखने की बजाय पूरे देश को ध्यान में रख कर देखने की जरूरत है। भारत में संघीय शासन व्यवस्था है, जिसमें पारंपरिक रूप से केंद्र ज्याद शक्तिशाली है लेकिन पिछले कुछ समय से राज्यों के कामकाज में केंद्र का दखल बढ़ा है और केंद्रीय सत्ता पहले से ज्यादा मजबूत हुई है। ऐसा कानूनी तौर पर हुआ है। भले सभी राज्यों की सहमति से हुआ हो लेकिन वस्तु व सेवा कर यानी जीएसटी की व्यवस्था भी राज्यों का अपने अधिकारों का समर्पण है, जिससे केंद्र को मजबूती मिली है। इसके अलावा चाहे बीएसएफ की जांच का दायरा राज्यों की सीमा में बढ़ाने का मामला हो या केंद्रीय एजेंसियों की जांच का मामला हो, दाखिला परीक्षाओं का मामला हो या कृषि से लेकर शिक्षा तक के समवर्ती सूची या राज्य सूची के विषयों पर केंद्र के कानून बनाने या पहले से चली आ रही व्यवस्था में बदलाव का मामला हो, हर जगह केंद्र की शक्ति बढ़ी है।

इसके अलावा विपक्ष के शासन वाले राज्यों के कामकाज में जिस तरह से राज्यपालों का दखल बढ़ा है और राजभवन से समानांतर सत्ता चलाने की प्रवृत्ति बढ़ी है वह भी देश के संघीय ढांचे के लिए अच्छी बात नहीं है। सुप्रीम कोर्ट का फैसला दिल्ली में अधिकारियों की नियुक्ति से जुड़ा है लेकिन इसका व्यापक असर होगा। इससे चुनी हुई सरकारों का सम्मान बहाल होगा और राज्यों को संविधान से मिली स्वायत्तता की रक्षा होगी। जहां तक महाराष्ट्र के मामले में आए फैसले का सवाल है तो उसके दो पहलू हैं। एक राजनीतिक है और दूसरा संवैधानिक और कानून से जुड़ा है।

राजनीतिक रूप से देखें तो शिव सेना और भाजपा की सरकार पर मंडरा रहा खतरा टल गया है। एकनाथ शिंदे और शिव सेना के नेता इस पर खुशी मना सकते है क्योंकि शिंदे सहित 16 विधायकों की सदस्यता बच गई है। परंतु इससे राज्य में यथास्थिति बनी रहेगी, जो आगे की राजनीति में भाजपा के लिए नुकसानदेह हो सकती है। ध्यान रहे भाजपा को अंदाजा हो गया है कि एकनाथ शिंदे को भले उसने मुख्यमंत्री बना दिया है लेकिन लोकप्रिय समर्थन उद्धव ठाकरे के साथ है। शिव सैनिक ठाकरे परिवार के साथ हैं इसलिए शिंदे के साथ होने का भाजपा को ज्यादा लाभ नहीं होगा। तभी शिंदे को बदलने की चर्चा चल रही थी। माना जा रहा था कि अदालत के फैसले से शिंदे की विदाई हो जाएगी और उसके बाद नई सरकार में भाजपा अपना मुख्यमंत्री बना सकती है। यह भी चर्चा थी कि शिंदे की सदस्यता गई तो अजित पवार के साथ एनसीपी के कुछ विधायक भाजपा का समर्थन करेंगे। यथास्थिति बने रहने से इन सबकी संभावना खत्म हो गई है या कम हो गई।

सुप्रीम कोर्ट के फैसले से राजनीति पर होने वाले असर से ज्यादा अहम राज्यपाल और स्पीकर के कामकाज पर दिया गया आदेश है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि तत्कालीन राज्यपाल का विधानसभा का सत्र बुलाने का आदेश कानून सम्मत नहीं था। अदालत ने अपने आदेश में कहा है- तब के राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी का विधानसभा का सत्र बुलाना, जिसकी वजह से अंतत: उद्धव ठाकरे के नेतृत्व वाली महा विकास अघाड़ी की सरकार गिरी, कानून सम्मत नहीं था। सर्वोच्च अदालत ने इसे गैरकानून नहीं कहा लेकिन कानून सम्मत नहीं होने का मतलब भी भी वही होता है। अदालत ने यह भी कहा कि राज्यपाल के पास कोई ऐसा दस्तावेज नहीं था, जिससे लगे कि सरकार गिरने वाली है, उनको जो चि_ी दी गई थी उसमें भी नहीं कहा गया था सरकार बहुमत गंवा चुकी है। यह राज्यपाल के कामकाज पर एक बड़ी टिप्पणी है। इससे यह सवाल उठता है कि क्या किसी खास मकसद से राज्यपाल ने विधानसभा का सत्र बुलाया?
इसी तरह सुप्रीम कोर्ट ने स्पीकर के कामकाज पर भी गंभीर टिप्पणी की है और विधायक दल व राजनीतिक दल को एक मानने की सोच पर सवालिया निशान लगाया।

चीफ जस्टिस की अध्यक्षता वाली पांच जजों की बेंच ने कहा है कि शिंदे गुट के भरत गोगावले को शिव सेना का चीफ व्हिप नियुक्त करने का स्पीकर का फैसला ‘अवैध’ था। अदालत ने कहा कि स्पीकर ने ऐसा माना कि विधायक दल ही व्हिप नियुक्त कर सकता है, राजनीतिक दल के गर्भनाल (अम्बिलिकल कॉर्ड) को तोड़ देने जैसा है। इस लिहाज से यह फैसला आने वाले समय में नजीर बनेगा। अदालत का यह कहना मामूली नहीं है कि स्पीकर को सिर्फ राजनीतिक दल की ओर से नियुक्त व्यक्ति को ही व्हिप के तौर पर मान्यता देनी चाहिए।

सो, भले फैसला शिव सेना के उद्धव ठाकरे गुट के खिलाफ गया हो, भले सुप्रीम कोर्ट ने कहा हो कि वह उद्धव ठाकरे की सरकार बहाल नहीं कर सकती है क्योंकि उन्होंने स्वैच्छिक रूप से इस्तीफा दे दिया हो, भले सर्वोच्च अदालत ने शिंदे गुट के 16 विधायकों को अयोग्य नहीं ठहराया हो लेकिन इसके बावजूद यह फैसला बहुत महत्वपूर्ण है। सुप्रीम कोर्ट ने माना है कि राज्यपाल द्वारा विधानसभा का सत्र बुला कर और स्पीकर द्वारा शिंदे गुट के नेता को व्हिप की मान्यता देकर ऐसी स्थितियां पैदा की गईं, जिनसे उद्धव ठाकरे की सरकार गिरी और ये दोनों फैसले ‘कानून सम्मत नहीं थे’ या ‘अवैध’ थे।

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