जल संरक्षण और प्राकृतिक खेती के मिलन से मिली उम्मीद

जल संरक्षण और प्राकृतिक खेती के मिलन से मिली उम्मीद

भारत डोगरा
अनेक स्तरों पर बढ़ती कठिनाइयों के बीच अनेक गांवों में जल संरक्षण और प्राकृतिक खेती के मिलन से नई उम्मीद मिल रही है और दो-तीन बीघे मात्र के किसानों के चेहरे पर भी मुस्कुराहट नजर आ रही है।
महोबा जिले के जैतपुर प्रखंड (उत्तर प्रदेश) के कुछ गांवों का उदाहरण लें तो बौरा गांव एक समय जल-संकट से त्रस्त था। बाहरी टैंकर से प्यास बुझती थी। तालाब सिकुड़ जाता था, कुओं का जल-स्तर नीचे चले जाता था, हैंडपंप दो बूंद टपका कर ही हांफने लगते थे। 2019 में यहां सृजन और अरुणोदय संस्थाओं के सहयोग से तालाब की सफाई का कार्य हुआ। दशकों से जमा मिट्टी तालाब से निकाली गई। अब तालाब में वष्रा का अधिक जल एकत्र होने लगा। पानी वर्ष भर जमा रहने जगा। इससे पानी का धरती में रिचार्ज हुआ, कुओं का जल-स्तर ऊपर आया। हैंडपंप में पानी पर्याप्त मिलने लगा। मनुष्यों के साथ पशु-पक्षियों को भी पानी ठीक से मिलने लगा। जो बहुत उपजाऊ  मिट्टी तालाब से निकाली गई थी, वह किसानों के खेतों में पहुंची तो मिट्टी का उपजाऊपन बढ़ाने में मदद मिली। इस अनुकूल स्थिति में सामाजिक कार्यकर्ताओं ने प्राकृतिक खेती को बढ़ाने का कार्य उत्साह से किया। गोमूत्र, गोबर में कुछ अन्य पोषण तत्वों को मिला कर गांवों में ही खाद तैयार की गई और हानिकारक कीड़ों, बीमारियों को फसलों से दूर रखने के लिए भी नीम की पत्तियों के घोल और गोमूत्र का उपयोग किया गया। इन स्थानीय संसाधनों के आधार पर बाहरी खर्च कम किया गया, जबकि फसलों की गुणवत्ता बहुत बढ़ गई, पोषण में सुधार हुआ, बीमारियों में कमी आई। खेमचंद जैसे कुछ किसान लीड या अग्रणी किसान के रूप में प्राकृतिक खेती से जुड़े। सब्जियों और फलों का उत्पादन बढ़ाने पर विशेष ध्यान दिया गया जिसमें वैज्ञानिक खेती, बागवानी के नियमों का ध्यान रखा गया।

सियाराम पटेल के नेतृत्व में तालाब प्रबंधन समिति का गठन किया गया ताकि जल-संरक्षण का लाभ स्थायी किया जाए। आगामी वर्षो में किसान अपने खर्च पर ही तालाब की सफाई कर उपजाऊ  मिट्टी अपने खेत में पहुंचाने लगे। इन विभिन्न प्रक्रियाओं से गांववासियों में मेलजोल और सहयोग बढ़ा और विरोधी पक्षों ने भी गांव की भलाई के लिए एक-दूसरे से सहयोग किया। इस तरह के प्रयासों में उत्साही किसानों की भूमिका विशेष प्रेरक रही। छीतड़वाड़ा के किसान अरविंद और उनके परिवार की भूमिका भी कुछ ऐसी ही है। अरविंद के पास एक ऐसा खेत था जिसकी उत्पादकता बहुत कम थी जहां पहले यहां 5 क्विंटल से भी कम गेंहू मिलता था। अरविंद ने यहीं से 14 क्विंटल गेंहू का उत्पादन कर दिखाया। सुरताई, छदामी जैसे अन्य किसानों के उत्साहवर्धक जैविक और प्राकृतिक खेती के प्रयासों से गांव में नई चेतना और उमंग नजर आती है। जिन किसानों ने अभी प्राकृतिक खेती नहीं अपनाई है, वे भी उसका कुछ प्रयोग थोड़ी सी भूमि पर अवश्य करना चाहते हैं। इस तरह जड़ता और चिंता के स्थान पर किसानों में रचनात्मक और नये प्रयोग करने का माहौल है, जो सुखद है। पर यहां भी शुरुआत जल संरक्षण से ही हो सकी। गांव के तालाब की सफाई और इससे उपलब्ध उपजाऊ  मिट्टी ने ही यहां प्राकृतिक खेती, सब्जी-फल उत्पादन, बाहरी निर्भरता और खर्च कम करने का दौर आरंभ किया। थुरहट गांव में तो यह बदलाव और भी आगे बढ़ा है। यहां रमेश दादा ने प्राकृतिक खेती प्रसार का केंद्र भी स्थापित किया है, जो अनेक गांवों के लिए आकषर्ण और प्रशिक्षण का स्थान बन रहा है। जो किसान स्वयं पर्याप्त गोबर और गोमूत्र प्राप्त नहीं कर पाते हैं, वे इसे यहां से अपेक्षाकृत बहुत कम कीमत पर प्राप्त कर सकते हैं।

रमेश ‘दादा’ का मानना है कि रासायनिक खेती के सामान्य खेती में बदलने के पहले एक-दो वर्ष अधिक कठिन है, उसके बाद उत्पादन में स्थिरता और वृद्धि होती है, पर फसल और उससे प्राप्त खाद्यों की गुणवत्ता तो शीघ्र ही सुधर जाती है। इस आधार पर रमेश को अपनी फसल की सामान्य से दोगुनी कीमत भी प्राप्त हुई। दूसरी ओर, रासायनिक खाद और कीटनाशक दवाएं नहीं खरीदने से खर्च बहुत कम हो गए। इस गांव में भी तालाब की सफाई के बाद जल संरक्षण और प्राकृतिक खेतों का सुंदर मिलन सामने आया है। दीनदयाल ने जैविक खेती से सब्जियों का उत्पादन भरपूर बढ़ाया तो घनश्याम ने अपने छोटे से खेत से ही दो ट्रक तरबूज के भर दिए। रवि करण के अनुसार यदि तालाब की और सफाई और पानी को कुछ रोकने की व्यवस्था हो जाए तो किसान और तेज प्रगति कर सकेंगे। इन प्रयासों में महिलाएं नजदीकी भागेदारी करती हैं। केशकली, जो चुरियारी गांव (गोरिहार ब्लॉक) में प्राकृतिक कृषि केंद्र का संचालन कर रही हैं, रासायनिक खाद को छोडक़र प्राकृतिक खेती अपना कर पहले वर्ष क्षति के बाद अब बहुत कम खर्च में अच्छा उत्पादन प्राप्त कर रही हैं। बड़े उत्साह से अन्य महिलाओं में प्राकृतिक कृषि का प्रसार कर रही हैं और महिला किसानों का इस ओर रुझान भी अधिक है। इस गांव में चंदेल कालीन बड़े तालाब की मिट्टी निकालने से लोगों को बहुत लाभ मिला पर विदेशीय मछलियों को तालाब में बढ़ाने का ठेका हो गया और उसके कारण जो कैमिकल प्रदूषण हुआ उसने गांववासियों को फिर चिंतित कर दिया है। चिंतित बुजुर्ग किसान दिनेश त्रिवेदी बताते हैं कि अनेक समस्याएं दूर हुई तो दूसरी हावी हो गई। प्रदूषित पानी से मनुष्य और पशु बीमार होते हैं। सिंघाड़े की खेती जैसे कार्य नहीं हो सकते। लेकिन हाल की सफलताओं के बाद गांव वालों को विश्वास है कि इस प्रदूषण को भी वे दूर कर सकेंगे। जैसे कि पास के घामरा गांव के लोगों ने सफलतापूर्वक किया। वैसे चुरियारी गांव ने कम समय में प्राकृतिक खेती की ओर जितने महत्त्वपूर्ण कदम उठाए हैं, वह उनसे चर्चा का विषय बन गया है। यहां के अधिकांश किसान प्राकृतिक खेती की ओर बढ़ रहे हैं। विपिन तिवारी जैसे किसानों के अनुभव बता रहे हैं कि प्राकृतिक खेती से उत्पादन दो गुना तक बढ़ रहा है जबकि खर्च बहुत कम हो रहा है। इसी गोरिहार ब्लॉक के खामिनखेड़ा गांव में एक नहीं दो तालाबों की सफाई के कार्य से उत्साह और उम्मीद का माहौल है। चंदेल कालीन बिहारी सागर का ओवरफ्लो देवी तालाब की ओर जाता है-दोनों तालाब परंपरागत जल-संग्रहण के सुंदर उदाहरण हैं।

बिहारी सागर में कमल के फूल बहुत खिलते हैं और इनके सौंदर्य के साथ इनकी सुगंध भी दूर-दूर तक पहुंचती है। इन तालाबों में मिट्टी निकालने से गांव में पानी का रिचार्ज तेजी से बढऩे लगा, पेयजल और सिंचाई तेजी से बढऩे लगी, पेयजल और सिंचाई, दोनों की स्थिति सुधर गई। तालाब की मिट्टी के उपजाऊपन और गोबर की खाद/गोमूत्र की देन है कि खर्च कम करने और उत्पादन बढ़ाने के लाभ गांववासियों को मिला  साथ में सब्जी-फल उत्पादन में अच्छी प्रगति हुई। केदार विकर्मा यहां ऐसे किसान हैं जिनकी जमीन पहले बहुत हद तक बंजर पड़ी थी पर नई स्थितियों में उत्साह से खेती में रुचि लेने लगे हैं, और आज वर्ष में तीन फसलें लेने के साथ अनेक सब्जियों और फलों की ओर भी बढ़ रहे हैं। जल-संरक्षण और प्राकृतिक खेती के संस्थागत प्रयास ऐसे मॉडल का रूप ले रहे हैं, जो दूर-दूर के गांवों को भी आकषिर्त कर रहे हैं।

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