संसद में काम नहीं होता सुप्रीम कोर्ट में होता है

संसद में काम नहीं होता सुप्रीम कोर्ट में होता है

सुप्रीम कोर्ट में संविधान के अनुच्छेद 370 पर सुनवाई हो रही है। छह दिन की सुनवाई हो गई है और अभी तक सिर्फ याचिकाकर्ताओं के वकीलों की दलीलें सुनी गई हैं। याचिककर्ताओं का मतलब है, जिन लोगों ने अनुच्छेद 370 हटाए जाने के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिका दी है। इसे हटाए जाने को सही ठहराने के लिए भी एक याचिका पिछले दिनों सर्वोच्च अदालत में दायर की गई थी, लेकिन उसे अदालत ने खारिज कर दिया था। सो, 20 से ज्यादा याचिकाएं हैं, जिनमें अनुच्छेद 370 को हटाने का विरोध किया गया है। ये याचिकाएं दायर करने वालों की तरफ से वरिष्ठ वकील कपिल सिब्बल, दुष्यंत दवे आदि ने दलीलें रखी हैं।

अब इसका समर्थन करने वाले यानी सरकार का पक्ष सुना जाएगा और वह भी चार-पांच दिन से कम नहीं चलेगा। उसके बाद दोनों तरफ से लिखित दलीलें पेश की जाएंगी और तब पांच जजों की संविधान पीठ विचार करके फैसला लिखेगी। यह भारतीय संविधान में अपनाए गए न्यायिक पुनराविलोकन यानी न्यायिक समीक्षा की व्यवस्था का खूबसूरत उदाहरण है। लेकिन सवाल है कि क्या यह काम पहले संसद में नहीं होना चाहिए था? संसद के दोनों सदनों से जब इसे मंजूरी दी गई तो किसी को ध्यान है कि उसमें कितना समय लगा था?

अनुच्छेद 370 हटाने, जम्मू कश्मीर का विशेष राज्य का दर्जा समाप्त करने और राज्य का बंटवारा कर लद्दाख को अलग केंद्र शासित प्रदेश बनाने का एक विधेयक लाया गया था और एक प्रस्ताव पेश किया गया था। पांच अगस्त 2019 को विधेयक और प्रस्ताव को राज्यसभा ने मंजूरी दी थी और छह अगस्त को लोकसभा ने मंजूरी दे दी। दोनों सदनों में एक एक दिन का समय भी नहीं लगा। सोचें, कानून बनाते समय संसद के दोनों सदनों ने एक एक दिन का भी समय नहीं लिया, जबकि सुप्रीम कोर्ट में इस पर सुनवाई में कम से कम 10 दिन का समय लगेगा और उसके बाद कई दिन लगा कर जज फैसला लिखेंगे।

सुप्रीम कोर्ट में अनुच्छेद 370 पर चल रही सुनवाई के दौरान जम्मू कश्मीर के तब के हालात, राजा हरि सिंह द्वारा अपने राज्य का विलय भारत संघ में करने के प्रस्ताव और संविधान के प्रावधानों पर बारीकी से विचार हो रहा है। इस पर दलीलें दी जा रही हैं कि अनुच्छेद 370 स्थायी प्रावधान था या अस्थायी? इस सवाल पर माथापच्ची हो रही है कि इसे संविधान सभा ने मंजूरी दी थी और अब संविधान सभा नहीं है तो संसद इसे हटा सकती है या नहीं? यह पता लगाया जा रहा है कि महाराजा हरि सिंह ने संपूर्ण संप्रभुता का समर्पण किया था या नहीं? कायदे से इन सारे सवालों पर संसद में विचार किया जाना चाहिए। संसद में सभी पार्टियों के सांसद इस पर दलीलें रखते। सरकार अपने स्टैंड को जस्टिफाई करने के तर्क पेश करती। इससे देश के लोगों का ज्ञानवर्धन होता। लेकिन दुर्भाग्य से अब संसद में किसी भी कानून पर इतना विचार नहीं हो रहा है। वहां सिर्फ बिल पेश होता है और सरकार बहुमत के दम पर पास करा लेती है या हर सत्र के पहले विपक्ष को कोई झुनझुना पकड़ा देती है, जिसे सारी विपक्षी पार्टियां बजाती रहती हैं और सरकार विपक्ष की गैरहाजिरी में बिल पास करा लेती है।

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