मौसम का कहर : प्रकृति पर क्या दोषारोपण

मौसम का कहर : प्रकृति पर क्या दोषारोपण

डॉ. शैलेंद्र यादव
पिछले कुछ दिनों में हिमाचल प्रदेश, दिल्ली, उत्तराखंड, पंजाब, हरियाणा, जम्मू कश्मीर और राजस्थान में हो रही अप्रत्याशित वर्षा ने कहर ढा रखा है। इन राज्यों में बारिश और बाढ़ की भयावह तस्वीरें सामने आ रही हैं, दिल्ली में मानसून की वर्षा ने 40 साल का रिकॉर्ड तोड़ा है। दिल्ली की सडक़ें स्विमिंग पूल नजर आई। हिमाचल प्रदेश के कुल्लू में तो ट्रक और कारें  व्यास नदी में खिलौने की तरह बहती दिखीं मकान ताश के पत्तों की तरह बिखरते।

ऐसे दृश्य भारत में ही नहीं, बल्कि विश्व के अन्य देशों में भी नजर आ रहे हैं, जहां वर्षा ने अपना कहर ढाया है। प्रकृति की मार से कोई नहीं बचा है। चाहे विकसित हों या विकासशील हों, मनुष्य का सारा विकास प्रकृति के रौद्र रूप के सामने बौना साबित हुआ है। यह प्रकृति से हो रहे खिलवाड़ का नतीजा है। आपदाओं के विकराल रूप को देखते हुए मानव पर्यावरण संबंधों की समीक्षा की जरूरत है, विद्वानों का एक समूह इन घटनाओं के लिए वैश्विक ऊष्मन और जलवायु परिवर्तन को जिम्मेदार मानता है जबकि यह सिक्के का एक पहलू ही है। इन घटनाओं के वर्तमान स्वरूप का अन्य पक्ष नजरअंदाज किया जा रहा है। आज भारत ही नहीं, बल्कि संपूर्ण विश्व पर्यावरण से संबंधित अनेक समस्याओं की चिंताओं से पूर्णतया ग्रसित है। वर्तमान समय में बड़ी ज्वलंत समस्या वैश्विक ऊष्मन (ग्लोबल वॉर्मिग) जनित समस्या सार्वभौमिक जलवायु परिवर्तन की है।

कहा जा रहा है कि मानव जनित भूमंडलीय ऊष्मन से जलवायु में स्थानीय, प्रादेशिक और वैश्विक स्तरों पर अल्पकालिक से लेकर दीर्घकालिक परिवर्तन हो रहे हैं। यूएनओ के जलवायु परिवर्तन की अध्ययन रिपोर्ट के पैनल आईपीसीसी ने अपने अध्ययनों  से प्रमाणित किया है कि भूमंडलीय स्तर पर धरातली सतह और निचले वायुमंडल के तापमान में लगातार वृद्धि हो रही है, और हम लोगों ने मान लिया है कि जलवायु परिवर्तन ही समस्या की जड़ है। लेकिन विश्व स्तर पर जलवायु की दशाएं अतीत से वर्तमान तक कभी स्थिर नहीं रही, बल्कि इसमें अनेक बार  परिवर्तन हो चुका है। अनेक पुरातत्विक प्रमाणों  के आधार पर स्पष्ट होता है कि अतीत में अनेक बार जलवायु में भीषण परिवर्तन हो चुके हैं, जिनका प्रभाव पर्यावरण पर पड़ा था।

वर्तमान में जहां आज मरु स्थल है, वहां पहले पर्याप्त वर्षा के प्रमाण मिलते हैं। जलवायु परिवर्तन का व्यापक प्रभाव पर्यावरण पर  अतीत में पड़ा था। वर्तमान में भी पड़ रहा है। पिछले कुछ दिनों की घटनाओं पर नजर डालें तो देखेंगे दिल्ली में सडक़ों पर प्राकृतिक स्विमिंग पूल वहीं बने हैं, जहां मानव ने पानी निकलने के रास्तों को बंद (अतिक्रमण ) कर रखा है, या नालियां कचरे से भरी हुई हैं। हिमाचल प्रदेश में वही भवन गिरे हैं, जो नदियों में बने हैं, वही गाडिय़ां बही हैं, जो नदियों के रास्ते में खड़ी हैं, वही पुल बहे हैं, जो नदी का मार्ग रोक रहे हैं, वही सडक़ टूटी हैं, जो पहाड़ को काट कर बनाई गई हैं, या नदी के किनारे हैं। लंबे समय तक ऐसी घटनाओं का कारण प्राकृतिक माना जाता रहा परंतु प्राकृतिक कारक ही ऐसी घटनाओं या उनके नुकसान का एकमात्र कारण नहीं है। ऐसी आपदाओं की उत्पत्ति का संबंध मानवीय क्रियाकलाप से भी है।

वनों के कटान की वजह से पर्वतीय क्षेत्र में भूस्खलन और बाढ़, नदी के मार्ग में मानव अतिक्रमण, भंगुर पर्वतीय जमीन पर निर्माण कार्य और अवैज्ञानिक भूमि उपयोग कुछ उदाहरण हैं। पर्यटक राज्य हिमाचल प्रदेश में विगत दशकों  में पर्यटक संबंधी अवसंरचनाओं का व्यापक विकास हुआ है। होटल, रिसोर्ट, राजमार्ग का निर्माण इत्यादि मानवीय क्रियाओं ने यहां के पर्यावरण को व्यापक क्षति पहुंचाई है।  ऐसी मानवीय क्रियाओं के समय पर्यावरण प्रभाव आकलन नहीं हुआ। पर्यावरणीय संवेदनशील क्षेत्र में भूमि उपयोग को सही से लागू नहीं किया गया। हिमाचल प्रदेश में व्यास नदी के आसपास के क्षेत्र में व्यापक आपदा का प्रभाव देखने को मिल रहा है, और इसका कारण नदी के बेहद करीब तक मानवीय निर्माण कार्य है। भारी अनियमित और असुरक्षित निर्माण कार्य हर तरफ हो रहा है और इन निर्माणों  का कचरा भी नदियों में ही डाला जा रहा है। कमजोर पहाड़ों पर पर्यटकों की सुविधाओं के लिए फोरलेन हाइवे निकाला जा रहा है, हाइड्रो प्रोजेक्ट के लिए सुरंग बनाई जा रही है, जिससे पहाड़ और कमजोर हो रहे हैं।

ये भूस्खलन को बढ़ा रहे हैं, भूस्खलन और खनन नदियों के मार्ग अवरुद्ध कर दे रहे हैं, और नदी अपना रास्ता बदल दे रही है। फलस्वरूप नदी के मार्ग में आई मानवीय संरचनाओं का नामोनिशान मिटा जा रहा है। मनाली से मंडी के बीच में ब्यास नदी ने अपना रास्ता बदल कर व्यापक क्षति पहुंचाई है। बढ़ती जनसंख्या की मांग की पूर्ति के लिए प्राकृतिक संसाधनों का दोहन इसके फलस्वरूप प्रदूषण इस समस्या के मूल में है।  विकास के दबाव अधिकतर स्थितियों में इतने अधिक होते हैं कि अल्पकालिक फायदों की आशा में खतरे को अक्सर अनदेखा कर दिया जाता है। आर्थिक विकास का वर्तमान स्वरूप इस संकट के लिए जिम्मेदार है।

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