38 साल से तानाशाह को झेलता कंबोडिया

38 साल से तानाशाह को झेलता कंबोडिया

श्रुति व्यास

एक वक्त था जब किस्से-कहानियों में कंबोडिया का जिक्र होता था। इस देश का बहुत गौरवशाली अतीत रहा है। महान खमेर साम्राज्य की शानो-शौकत,राजाओं के दिव्य और विशाल अंकोरवाट मंदिर के चर्चे थे।कोई 692 साल चले खमेर साम्राज्य की धन-संपदा अकूत थी। लेकिन वक्त सोने की लंका को भी मिट्टी में मिला देता है। सो खमेर साम्राज्य भी समय के साथ धूल में मिला। उर्फ कंपूचिया सदियों बाद एक राष्ट्र के रूप में फिर उभरा तो एक खलनायक, लम्पट देश बना। सन् 1975 से 1979 के बीच वह ‘कंपूचिया जनतंत्र’ कहलाता था। उसकी बागडोर कम्बोडियाई कम्युनिस्टों के एक समूह के हाथों में थी। उसने वहां एक खूनी क्रांति की। अपने ही लोगों का नरसंहार किया। देश के 70 लाख लोगों में से कम से कम 17 लाख मारे गए। उस खूनी क्रांति का क्रूर नेता पोल पोट था।

भयावह काल के बाद कम्बोडिया ने अपना पुननिर्माण करने और भव्य अतीत को दुबारा जीने का प्रयास किया। इस बार लोगों को उम्मीद थी कि उनका देश असली लोकतंत्र बनेगा। लेकिन आज चार दशक बाद भी, कंबोडिया, जो लगभग 1.60 करोड़ आबादी वाला विकासशील राष्ट्र है, अपने खूनी अतीत को भुला नहीं सका है। उसका आज भयावह है और कल अंधकारमय। खमेर रूज के पतन के 44 साल बाद भी स्थितियां लगभग वैसी ही हैं।

हुन सेन 38 साल से वहां के प्रधानमंत्री हैं। वे पहले खमेर रूज से जुड़े हुए थे और 1985 से सत्ता पर काबिज हैं। वे कम्युनिस्ट कम्बोडियन पीपुल्स पार्टी के नेता हैं और ‘चुनाव’ के बाद, जिसके लिए कंबोडियाईयों ने 23 जुलाई को वोट डाले, वे न केवल दुनिया में सबसे अधिक समय तक पद पर रहने वाले प्रधानमंत्री बन जाएंगें बल्कि खमेर साम्राज्य के बाद सर्वाधिक समय तक कंबोडिया पर शासन करने वाले व्यक्ति भी। वे एक विवादास्पद नेता हैं। पश्चिमी देश उनके शासन के आलोचक रहे हैं और जनता उनसे डरती है। जिन्हें पता न हो उनकी जानकारी के लिए रविवार को कंबोडिया में हुआ मतदान वहां का सातंवा आमचुनाव था। लेकिन मतदाताओं के सामने केवल एक विकल्प है – हुन सेन की पार्टी। कई हफ़्तों तक चले चुनाव अभियान और विरोधियों के खिलाफ कार्यवाहियां के दौर के बाद हुन सेन की सत्ताधारी कंबोडियन पीपुल्स पार्टी (सीपीपी) ही अकेली चुनावी मैदान में है।

विपक्षी सांसदों के अनुसार उन पर कई हिंसक हमले हुए, ह्यूमन राईट्स वाच की रपट के अनुसार जैसे-जैसे चुनाव नजदीक आते गए, सरकार द्वारा राजनैतिक विरोधियों को डराने-धमकाने और मनमानी गिरफ्तारियां करने की घटनाएं बढती गईं। मई में सरकार ने एक तकनीकी मुद्दे को आधार बनाकर देश के सबसे प्रमुख विपक्षी दल, केंडिललाईट पार्टी पर प्रतिबंध लगा दिया। राष्ट्रीय चुनाव आयोग ने कहा कि पार्टी द्वारा दिए गए दस्तावेजों में ऐसी कमियां थीं जो पिछले साल हुए स्थानीय चुनाव लडऩे में बाधक नहीं थीं।  स्थानीय चुनावों में केंडिललाईट पार्टी को 22 प्रतिशत वोट मिले थे। और विश्लेषकों का कहना है कि हुन सेन को इस पार्टी में स्वयं के लिए खतरा नजर आया।

विपक्ष को कुचलने के अलावा, हुन सेन असहमति और आलोचना को भी कुचलते रहे हैं जिससे मजबूर होकर कई लोग देश छोडक़र भाग गए है। मीडिया के खिलाफ भी कार्यवाहियां हुई हैं। वहां के सबसे बड़े मीडिया संस्थान वाईस आफ डेमोक्रेसी पर हुन सेन ने उन पर और उनके पुत्र पर हमले करने और उनकी ‘प्रतिष्ठा व गरिमा’ को नुकसान पहुँचाने के आरोप लगाए था। इसके बाद इस वर्ष के शुरू में इस संस्थान पर ताला लगने के बाद वहां अब स्वतंत्र मीडिया जैसी किसी चीज का अस्तित्व नहीं बचा है। पिछले माह वहां के टेलिकॉम रेगुलेटर ने इंटरनेट सेवा देने वाली कंपनियों और तीन दूसरे समाचार माध्यमों की वेबसाईटों को ब्लाक करने का आदेश दिया। और हां, अब हुन सेन को प्रधानमंत्री कहकर संबोधित नहीं किया जाता है। सन् 2016 में समाचारपत्रों, रेडियो और टेलीविजन संस्थाओं को निर्देश दिया गया कि हुन सेन की छ:ह शब्दों की मानद पदवी का जिक्र उनसे संबंधित सभी खबरों की शुरूआती पंक्तियों में करें अन्यथा उन्हें कानूनी कार्यवाही का सामना करना पड़ेगा। इस पदवी का अनुवाद लगभग यह होगा – ‘‘दैवीय प्रधानमंत्री एवं सेना के सर्वोच्च सेनापति”।हुन सेन को यह पदवी कंबोडिया के सम्राट नोरोडोम सिम्होनी द्वारा सन् 2007 में दी गई थी।

अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी हुन सेन को न केवल अपने निरंकुश शासन के कारण आलोचना का सामना करना पड़ता है बल्कि चीन से संबंध प्रगाढ़ करने के कारण भी उन्हें बुरा-भला कहा जाता है। उनके जरिए कंबोडिया में चीन का सैन्य, आर्थिक और राजनीतिक दबदबा बहुत बढ़ गया है, जिसके चलते कंबोडिया लगभग चीन का पिछलग्गू बन गया है। इन तमाम कमियों और दबावों के बावजूद हुन सेन चाहेंगे कि उनके राज को दशकों तक हुए आर्थिक विकास और शांति स्थापित करने के लिए याद किया जाए। उनके द्वारा उनकी शान को समर्पित नवीनतम प्रयास है विन विन मान्यूमेंट, जो दशकों के टकराव को समाप्त करने के उद्धेश्य से खमेर रूस के सदस्यों को क्षमादान देने के लिए 1990 के दशक में लागू की गई उनकी नीति का नाम था।

एक रहस्यपूर्ण राजनीतिज्ञ होने के नाते उन्होंने अपनी छवि ऐसी बनाई है कि कंबोडिया को खमेर रूस से बचाने का श्रेय उन्हें और सिर्फ उन्हें है। विन-विन स्मारक पर बने चित्रों में दिखाई गई हैं भरपूर फसलें, व्यस्त बंदरगाह और बढ़ती हुई जीडीपी। सन् 1998 से 2019 तक कंबोडिया की अर्थव्यवस्था की औसत वृद्धि दर 8 प्रतिशत रही, जो उसे दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ रही अर्थव्यवस्थाओं में से एक बनाती है। कोविड-19 महामारी समाप्त होने के बाद अब पर्यटक दुबारा देश में आ रहे हैं औैर विश्व बैंक का अनुमान है कि इस वर्ष अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर 5।5 प्रतिशत रहेगी। कंबोडिया के इस प्रभावशाली आर्थिक विकास से लाखों लोग गरीबी से उबरे हैं। विश्व बैंक के मुताबिक देश की आबादी में गरीबों का प्रतिशत तेजी से घट कर 2020 के दशक में पहले से करीब आधा -18 प्रतिशत – रह गया है।

इस आर्थिक विकास के बावजूद देश में अपनी मर्जी से जीने और सांस लेने की आजादी नहीं है। इस चुनाव के बाद हुन सेन प्रधानमंत्री की गद्दी अपने सबसे बड़े पुत्र हुन मेनेट को दे देंगे।23 जुलाई को हुए चुनाव में हुन सेन ने भारी जीत और सत्ता हासिल की और अगले कई वर्षों तक उनके और उनके पुत्रों के सत्ता पर काबिज रहने का मार्ग प्रशस्त किया। जहां तक कंबोडिया का सवाल है, चुनाव के इस प्रहसन और देश के लोकतांत्रिक होने के जो ढोल पीटे जा रहे थे, उनसे वहां लोकतंत्र कायम होने की जो थोड़ी-बहुत आशा थी, वह भी ख़त्म हो गयी है।

admin

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *