विपक्ष के गठबंधन की राह आसान हुई

विपक्ष के गठबंधन की राह आसान हुई

अजीत द्विवेदी
पिछले कुछ दिनों में एक के बाद एक ऐसी घटनाएं हुई हैं, जिनकी वजह से विपक्षी पार्टियों की या विपक्ष के बड़े नेताओं की नकारात्मक छवि बनी। विपक्षी पार्टियों और नेताओं का मजाक बना और ऐसा लगा कि यह विपक्ष क्या नरेंद्र मोदी की भाजपा से लड़ पाएगा! लेकिन ये घटनाएं ही विपक्षी एकता के रास्ते में आने वाली बाधाओं को दूर करने का कारण बन गई हैं। इन घटनाओं की वजह से विपक्षी गठंबधन ‘इंडिया’ की राह आसान हो गई है। पिछले तीन महीने से रूकी हुई ‘इंडिया’ की गाड़ी एक बार फिर चल पड़ी है और ऐसा लग रहा है कि अब विपक्षी पार्टियां अपने अपने अहंकार और स्वार्थ छोड़ कर एकजुट हो जाएंगी। ऐसी तीन घटनाएं हैं, जिनकी वजह से विपक्षी गठबंधन की राह आसान हुई है। पहली घटना सबसे पहले हुई, जब बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के विधानसभा में दिए एक बयान को लेकर उनके मानसिक स्वास्थ्य का सवाल उठा। दूसरी घटना पांच राज्यों के चुनाव नतीजों की है, जिसमें कांग्रेस चार राज्यों में हार गई। और तीसरी घटना तृणमूल कांग्रेस की सांसद महुआ मोइत्रा को लोकसभा से निष्कासित किए जाने की है, जिस पर सभी पार्टियां साथ आईं।

सबसे पहले इसी घटना से शुरू करते हैं। महुआ मोइत्रा को लेकर उनकी पार्टी की प्रमुख ममता बनर्जी के मन में कोई बहुत प्यार, मोहब्बत वाला भाव नहीं था। तभी जब वे पैसे लेकर संसद में सवाल पूछने के विवाद में फंसीं तो ममता बनर्जी या पार्टी की ओर से उनका बचाव नहीं किया गया। पार्टी ने महुआ को उनके हाल पर छोड़ दिया। लोकसभा में कांग्रेस के नेता अधीर रंजन चौधरी हैं, जिनका ममता बनर्जी के साथ छत्तीस का आंकड़ा है और यह बात कांग्रेस नेतृत्व को भी पता है। इसलिए कांग्रेस भी चुप रही और अधीर रंजन तो चुप रहे हीं। लेकिन जैसे जैसे मामला आगे बढ़ा और महुआ को पूरी दुनिया से समर्थन मिलना शुरू हुआ वैसे वैसे तृणमूल भी उनके समर्थन में उतरी और कांग्रेस ने भी समर्थन किया। एथिक्स कमेटी की बैठक से लेकर लोकसभा में महुआ के निष्कासन पर हुई चर्चा के दौरान कांग्रेस, राजद आदि के नेताओं ने जैसे उनका बचाव किया उससे विपक्षी एकता का संदेश गया। उनके निष्कासन से पहले ममता ने उनको कृष्णानगर जिले का अध्यक्ष बना कर ऐलान कर दिया कि वे फिर तृणमूल की टिकट से लड़ेंगी। विपक्ष ने इसे महिला की अस्मिता का मुद्दा बनाया है। इस बहाने कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस की नजदीकी बढ़ी है। सभी विपक्षी नेताओं की महुआ के प्रति सहानुभूति बनी है। आने वाले दिनों में पश्चिम बंगाल की राजनीति पर इसका असर देखने को मिल सकता है।

विपक्ष के सबसे बड़े नेताओं में से एक बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार हैं, जिन्होंने विपक्षी पार्टियों को एकजुट किया। उनके प्रयास से ही जून में पहली बार 17 विपक्षी पार्टियों के नेता पटना में जुटे थे। उसके बाद दो बैठकें और हुईं, जिनमें विपक्षी पार्टियों की संख्या बढ़ कर 28 हो गए। इस आधार पर नीतीश की पार्टी के नेता अड़े थे कि उनको विपक्षी गठबंधन ‘इंडिया’ का संयोजक बनाया जाए। इस बीच विधानसभा के शीतकालीन सत्र में नीतीश कुमार ने प्रजनन को लेकर बेहद अश्लील टिप्पणी कर दी। उसी समय कुछ और घटनाएं भी हुईं, जिनसे नीतीश के मानसिक स्वास्थ्य पर सवाल उठे। विपक्षी गठबंधन को इसका दो तरह से फायदा हुआ। पहला तो यह कि विपक्षी गठबंधन का संयोजक बनने का नीतीश का दावा कमजोर हुआ। इससे विपक्षी गठबंधन में यथास्थिति बनी रह सकती है और मौजूदा समन्वय समिति में बदलाव की जरूरत नहीं होगी। दूसरा फायदा यह है कि नीतीश के मानसिक स्वास्थ्य को लेकर भाजपा के नेताओं ने उन पर जैसा हमला किया उससे फिलहाल जदयू और भाजपा के नजदीक आने की संभावना कम हो गई है।

तीसरी घटना पांच राज्यों के चुनाव नतीजों की है, जिसमें कांग्रेस चार राज्यों में हार गई है। अगर कांग्रेस तीन या चार राज्यों में जीतती तो उसका अलग असर होता। फिर विपक्षी पार्टियों में यह हौसला मजबूत होता कि नरेंद्र मोदी और अमित शाह की भाजपा को इस तरह से हराया जा सकता है। कर्नाटक की जीत के बाद जो धारणा बनी है वह मजबूत होती। लेकिन उसमें खतरा यह था कि कांग्रेस के अंदर यह भाव पैदा होता कि वह अकेले ही भाजपा को हरा सकती है। ध्यान रहे पांच में से हिंदी पट्टी के तीन राज्यों में कांग्रेस और भाजपा के बीच सीधा मुकाबला था। ऊपर से इन राज्यों में विपक्षी गठबंधन की कई पार्टियों ने भी अपने उम्मीदवार उतारे थे। अगर इसके बावजूद कांग्रेस जीतती तो उसके नेता मानते कि सीधी लड़ाई में भाजपा को हराने के लिए कांग्रेस को दूसरी पार्टियों की जरूरत नहीं है। इसी सोच में कांग्रेस ने विपक्षी गठबंधन में सीट बंटवारा रोक रखा था। अगर कांग्रेस जीतती तो दूसरा खतरा यह था कि प्रदेशों में तमाम क्षत्रप नेता पहले से ज्यादा मजबूत होते और पार्टी की कमान उनके हाथ में होती। गौरतलब है कि 2018 में कांग्रेस जब इन तीनों राज्यों में जीती तो नेतृत्व के मामले में यथास्थिति बनाए रखी गई, जिसका खामियाजा 2019 में कांग्रेस को भुगतना पड़ा। इस बार की हार के बाद उम्मीद की जा सकती है कि कांग्रेस नए नेताओं को आगे करके नए तेवर के साथ 2024 का चुनाव लड़ेगी।

यह ध्यान रखने की जरूरत है कि चार राज्यों में कांग्रेस हारी है लेकिन हिंदी पट्टी के जो तीन राज्य अगले लोकसभा चुनाव से लिहाज से बहुत अहम हैं उन राज्यों में कांग्रेस ने अच्छी टक्कर दी है। मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में कांग्रेस को करीब चार करोड़ वोट मिला है, जबकि भाजपा को साढ़े चार करोड़ वोट मिले हैं। भाजपा को 50 लाख वोट जरूर ज्यादा है लेकिन हकीकत यह है कि हर जगह कांग्रेस को 40 फीसदी वोट मिले हैं। कांग्रेस राजस्थान और छत्तीसगढ़ में बहुत कम अंतर से हारी है। अगले चुनाव में इसका फायदा यह हो सकता है कि लोगों की सहानुभूति कांग्रेस के प्रति बने। आखिर 2018 में इन तीनों राज्यों में भाजपा को हराने के बाद लोगों की नाराजगी खत्म हो गई थी और 2019 में उन्होंने फिर से भाजपा को वोट दे दिया था। इस बार हो सकता है कि भाजपा के खिलाफ एंटी इन्कम्बैंसी बने और कांग्रेस के प्रति सहानुभूति हो। सो, कांग्रेस इसमें उम्मीद की किरण देख सकती है क्योंकि तीनों राज्यों की जनता ने कांग्रेस को 40 फीसदी या उससे ज्यादा वोट देकर उसकी हैसियत बनाए रखी है।

इन तीनों राज्यों में कांग्रेस के हारने का एक बड़ा असर यह हुआ है कि कांग्रेस आसमान से उतर कर धरती पर आ गई है। तभी ‘मैं नहीं हम’ का नारा दिया गया है। गठबंधन का नेतृत्व करने की जिद छोड़ कर कांग्रेस बराबरी पर बात करने को राजी हुई है। दूसरी ओर भाजपा की भारी-भरकम जीत से विपक्ष की दूसरी पार्टियों का भी आत्मविश्वास हिला है। उनको लग रहा था कि केंद्र में 10 साल सरकार चलाने और कई राज्यों में लगातार सरकार चलाने से भाजपा के खिलाफ एंटी इन्कम्बैंसी हुई है और इसलिए उसको हराया जा सकता है। अब उनको अहसास हुआ है कि जनता में अब भी मोदी व भाजपा के प्रति समर्थन काम है। इसी तरह अगर भाजपा हार जाती तो कांग्रेस सहित विपक्ष की तमाम मंडलवादी पार्टियों के मन में यह धारणा बैठती की जाति गणना और आरक्षण का मुद्दा रामबाण है। तब उनका सारा अभियान इन मुद्दों पर राजनीति करने वाली पार्टियों के ईर्द-गिर्द घूमता। तभी कहा जा सकता है कि पांच राज्यों में कांग्रेस के हारने और उसके चुनावी मुद्दों के बहुत कामयाब नहीं होने से सभी पार्टियों को नए सिरे से सोचने का मौका मिला है। अब वे ज्यादा आसानी से गठबंधन व सीटों का बंटवारा कर पाएंगी और चुनावी मुद्दों सहित भाजपा से लडऩे की कारगर रणनीति पर नए सिरे से विचार कर सकेंगी।

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